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बुढ़ापा (वृद्धावस्था) के बारे में इस्लाम का दृष्टिकोण

दुन्या की व्यवस्था के अनुसार जीव जन्म लेते हैं, बढ़ते हैं, बुढ़ापा की उम्र को पहुँचते हैं और मर जाते हैं। वृद्धावस्था, जो जीवन प्रवाह का एक चरण है, का इस्लाम के अनुसार विभिन्न दृष्टिकोणों से मूल्यांकन किया गया है और आयतों और हदीसों का विषय रहा है[1]। बुढ़ापा जीवन की कमजोरतरीन काल है। दूसरी ओर, हज़रत मुहम्मद (सल्ल) ने, जिन्होंने बुजुर्गों का सम्मान करने के लिए प्रोत्साहित किया है, उन्होंने “बुजुर्गों का सम्मान अल्लाह के लिए सम्मान से आता है[2]” शब्दों के साथ इस मुद्दे के महत्व पर ध्यान आकर्षित किया है।

बुढ़ापा एक ऐसी स्थिति है जिससे कोई भी इंसान बच नहीं सकता है[3]।कुरान में, बुजुर्गों की स्थिति के बारे में बात करते हुवे “जीवन की सबसे कमजोर उम्र” जुमले का उपयोग किया गया है[4]।भक्ति के इस चरण तक पहुँच चुके लोगों के साथ करुणा और अच्छे व्यवहार के साथ व्यवहार करने की सलाह दी जाती है।सूरह इसरा  के 23-25 ​​आयतों में बुजुर्ग माता-पिता के साथ बोले गए निम्नलिखित शब्द एक बहुत स्पष्ट दृष्टिकोण प्रकट करते हैं: “और तुम्हारे परवरदिगार ने तो हुक्म ही दिया है कि उसके सिवा किसी दूसरे की इबादत न करना और माँ बाप से नेकी करना अगर उनमें से एक या दोनों तेरे सामने बुढ़ापे को पहुँचे (और किसी बात पर खफा हों) तो (ख़बरदार उनके जवाब में उफ तक) न कहना और न उनको झिड़कना और जो कुछ कहना सुनना हो तो बहुत अदब से कहा करो।और उनके सामने नियाज़ (रहमत) से ख़ाकसारी का पहलू झुकाए रखो और उनके हक़ में दुआ करो कि मेरे पालने वाले जिस तरह इन दोनों ने मेरे छोटेपन में मेरी मेरी परवरिश की है।इसी तरह तू भी इन पर रहम फरमा तुम्हारे दिल की बात तुम्हारा परवरदिगार ख़ूब जानता है अगर तुम (वाक़ई) नेक होगे और भूले से उनकी ख़ता की है तो वह तुमको बख्श देगा क्योंकि वह तो तौबा करने वालों का बड़ा बख़शने वाला है[5]”।

बुजुर्ग लोग, जिन्हें उत्पादन और आर्थिक लाभ से दूर होने पर मजबूर होना पड़ता है, उन्हें मुसलमानों की नज़र में समाज के लिए बोझ के रूप में नहीं देखा जाता, इसके विपरीत, उन्हें “बहुतायत का स्रोत” और “प्रतिरक्षा का साधन” के रूप में देखा जाता है।

हज़रत मुहम्मद (सल्ल) ने फ़रमाया, “यदि अल्लाह तुम्हारी मदद करता है और तुम्हें जीविका देता है, तो क्या यह तुम्हारे बीच कमजोरों के कारण नहीं है[6]?”इसी तरह की और हदीसों[7] के अनुसार, बच्चे, बीमार, बुजुर्ग, गरीब और विकलांग मानवता के प्रति अल्लाह की उदारता के साधन हैं।

इसी संदर्भ में हजरत मुहम्मद (सल्ल) की एक और हदीस इस प्रकार है: “यदि यह मुत्तक़ी/धर्मपरायण युवक, झुके हुए बुजुर्ग, दूध पीते हुए बच्चे, और फैलते हुए जानवर नहीं होते, तो विपत्तियाँ लोगों पर बाढ़ की तरह आतीं[8]।”इस हदीस में कहा गया है कि बुजुर्ग आध्यात्मिक बिजली की छड़ें हैं जो समाज पर आने वाली परेशानियों की बांधें हैं।

बुढ़ापा एक ऐसे व्यक्ति के लिए दुखद और भयावह प्रभाव पैदा कर सकता है जो अल्लाह और आख़िरत के अस्तित्व में विश्वास नहीं करता है, जबकि मूमिनों  के लिए “दुनिया के बोझ से छुटकारा पाने, जीवन की कठिनाइयों और उन प्रियजनों के साथ पुनर्मिलन करने के लिए जो जा चुके हैं अंतरंगता की भावना पैदा कर सकता है[9]“। बूढ़े लोगों के प्रियजन, जैसे माता-पिता, करीबी रिश्तेदार, दोस्त, इस दुनिया की तुलना में आख़िरत में अधिक जमा हुए हैं। ऐसा मुसलमान आख़िरत में अपनों से मिलने की आशा रखते हैं और उत्साह के साथ अपनी इबादत जारी रखते हैं।

उम्र बढ़ने से होने वाली शारीरिक कठिनाइयाँ असल में लोगों को सांसारिक लालच से बचने और असहाय महसूस करने पर अल्लाह की ओर दौड़ने के लिए प्रोत्साहित करती हैं। अल्लाह ने लोगों पर जीवन के अंतिम काल को वृद्धावस्था की स्थितियों में रख कर हमेशा की ज़िन्दगी के मार्ग पर दया करता है। मानव जीवन में उम्र बढ़ने की घटना जीवन की समीक्षा करने, पापों का पश्चाताप करने और अल्लाह की इबादत ज़ियादह करने के अवसरों की एक फुर्सत/मौक़ा है।

अपंगता, बीमारी, बुढ़ापा इस संसार की विवशताएँ हैं।आख़िरत के जीवन में इनमें से कुछ भी नहीं होगा।हजरत मुहम्मद (सल्ल) ने एक बार जब कहा था कि बूढ़े जन्नत में प्रवेश नहीं कर सकते, यह सुनकर एक बुढ़िया उदास हो गई, हजरत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने खुशखबरी दी कि लोग जन्नत में बूढ़े हो कर नहीं बल्कि सबसे खूबसूरत उम्र में तब्दील होकर दाखिल किये जायेंगे[10]। बुढ़ापा का अस्तित्व युवा लोगों के लिए भी एक बहुमुखी और महत्वपूर्ण अनुस्मारक है।


[1] नहल/70.

[2] अबू दाऊद, अदब, 20. यह भी देखें। तिर्मिज़ी, बिर, 15.

[3] इंसान को उसके आसपास के नश्वर खतरों के साथ बनाया गया है; यहां तक ​​कि अगर वह इन खतरों पर काबू पा भी ले, तो वह बुढ़ापा को पहुँच कर रहेगा और अंत में मर जाएगा। (तिर्मिज़ी, क़द्र, 14)

[4] हज/5.

[5] इसरा/23-25.

[6] बुखारी, जिहाद 76.

[7] अबू दाऊद, जिहाद 70; नसाई, जिहाद 43.

[8] तबरानी, ​​​​अल-अवसत, 7/134.

[9] 26. लमाआ, लमआलर, सईद नूर्सी।

[10] तिर्मिज़ी, शमाइल,144.

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