संगीत इस्लाम में

इस्लाम में संगीत सुनने के बारे में कोई सामान्य नियम नहीं पाया जाता है; माप, सीमा और सिद्धांत निर्धारित किए गए हैं। इन् सिद्धांतों के अनुरूप कुछ प्रसंगों में संगीत का निषेध किया गया है जबकि कुछ में कोई आपत्ति नहीं जताई गई है।

संगीत; यह आवाज और उपकरणों के उपयोग के साथ वुजूद में आता है। और आवाज, उपकरण या दोनों के संयोजन से दिल (भावनाओं), कानों को आकर्षित करता है। इन ध्वनियों की सामग्री और प्रभाव के अनुसार विधिशास्त्रीय भी बदलता है। संगीत एक उदात्त और आध्यात्मिक भावना भी छोड़ सकता है, जबकि यह एक व्यक्ति को एक ऐसे मूड में भी खींच सकता है जो पाप और विद्रोह की ओर ले जाता है।

यदि संगीत का एक टुकड़ा हमें अल्लाह की याद दिलाता हो, धार्मिक भावनाओं को बढ़ाता हो, अल्लाह के रसूल के लिए मुहब्बत्त बढ़ाता हो, इसमें कोई शब्द या सामग्री न हो जो हराम की ओर ले जाता हो और व्यक्ति को शांति प्रदान करता हो, तो इस संगीत के बनाने या सुनने में कोई हर्ज नहीं है। हजरत मुहम्मद (सल्ल) ने शादी की निज्ञापन करने के लिए दफ़ बजाने की सलाह दी है[1]।इसी तरह, उन्होंने ईदों पर महिलाओं के बीच दफ़ बजाकर और आपस में संगीत गाकर दावत का आनंद लेने पर कोई आपत्ति नहीं जताई है[2]

यदि प्रस्तुत संगीत अल्लाह के बारे में शिर्क और विद्रोह है, इस्लाम की बुनियादी शिक्षाओं के विपरीत सामग्री को व्यक्त करता है या हराम को प्रोत्साहित करता है, लोगों को सांसारिक मामलों के बारे में निराशा और अप्रसन्नता की ओर ले जाता है, तो यह संगीत बनाने वाले और सुनने वाले दोनों के लिए निषिद्ध है।एक शादी के समय गाये जाने वाले गीत में “हमारे बीच एक पैग़म्बर है जो जानता है कि कल क्या होगा।”हजरत मुहम्मद (सल्ल) इन शब्दों को सुनकर, “कल क्या होगा यह केवल अल्लाह जानता है।” कहते हुवे; उन्हें गाने के लिए नहीं बल्कि इसमें शामिल अन्तर्वस्तु के लिए चेतावनी दी थी[3]।इसके अतिरिक्त, यदि वह वातावरण जहाँ संगीत बजाया/सुना जाता है, ऐसा वातावरण है जो पापों को प्रोत्साहित करता है और लोगों को हराम की ओर ले जाता है, तो यह भी इस्लाम में अस्वीकार्य स्थिति है।

ऐसे संगीत जिनकी सामग्री इस्लाम के विपरीत नहीं हैं उसे भी सुनने के कुछ सीमाएं हैं।अल्लाह के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने से रोकने वाले न हों, समय की बर्बादी का कारण न बनतें हों, दिन के अधिकांश समय इसमें न कटते हों,और दासता कर्तव्यों को पूरा करने से न रोकतें हों, इन सीमाओं में से मुख्य हैं।

इस्लाम में संगीत हलाल[4] या हराम[5] है सामान्य तौर पर कहना सही नहीं है। संगीत एक ऐसा विषय है जिसे किसी एक हुकुम में नहीं बांधा जा सकता है, उसमें जो स्थिति और वातावरण होता है, उसी के अनुसार उसका हुकुम भी होता है।इस्लामी विद्वानों में से एक इमाम ग़ज़ाली हैं जिन्हों ने हराम, मकरूह और मुबाह के रूप में तीन मुख्य शीर्षकों के तहत संगीत की जाँच करतें हैं और इसे इस प्रकार व्यक्त करतें हैं:

“जो लोग सांसारिक इच्छा और वासना से भरे हुए हैं, उनके लिए ऐसी आवाजें जो इन भावनाओं को भड़काती हैं हराम (निषिद्ध) हैं।

यह उस व्यक्ति के लिए मकरूह है (धार्मिक रूप से बदसूरत माना जाता है) जो अपना अधिकांश समय इस पर व्यतीत करता है और इसे व्यस्त रहने की आदत बना लेता है।

यह एक ऐसे व्यक्ति के लिए मुस्तहब है (धार्मिक रूप से उचित माना जाता है) जो अल्लाह की मुहब्बत से भरपूर हैं और खूबसूरत आवाज वह सुनतें हैं, अपने आप में सुंदर गुणों को उत्तेजित करतें हैं[6]

इस सब के साथ, यह याद रखना चाहिए कि जब अल्लाह ने काइनात का निर्माण किया, तो उसने ध्वनियों से एक सामंजस्य भी बनाया, और उसने मनुष्य की रचना को ध्वनियों के इस सामंजस्य का आनंद लेने के लिए एक विशेषता भी दी। इसी दिशा में, अल्लाह ने क़ुरआन की तिलावत को एक सुरीली ध्वनि व्यवस्था दी है जो कानों को भाती है। सदियों से, मुसलमानों ने कई योग्य संगीतकारों को प्रशिक्षित किया है और हमेशा अज़ान और कुरान के पाठ में संगीत की लय जोड़ी है। साथ ही, संगीत अल्लाह के अस्तित्व और एकता के प्रमाणों में से एक है। अल्लाह ने काइनात में अनगिनत परिदृश्य और रंग बनाकर और उनके बीच एक सामंजस्य रखते हुए, मानव आंखों को उन्हें देखने और आनंद लेने के लिए डिजाइन किया है। अस्तित्व और मानव कानों के दायरे में ध्वनियों और लय के बीच एक समान ताला-कुंजी सामंजस्य मौजूद है। उपरोक्त स्थितियों से पता चलता है कि आँखें और दृष्टि, कान और आवाज एक ही सर्वोच्च निर्माता के कार्य हैं।


[1] तिर्मिज़ी, निकाह, 6.

[2] मुस्लिम, ईदैन, 17.

[3] बुखारी, “निकाह”, 49; तिर्मिज़ी, “निकाह”, 6.

[4] हलाल: इस्लामिक रूप से स्वीकृत।

[5] हराम: इस्लामिक रूप से वर्जित।

[6] इह्या, इमाम ग़ज़ाली II/279-81.